किसी नगर में एक मूर्ख राजा राज्य करता था। उसका नाम था राजा गोपीचंद। राजा को न तो नीति का ज्ञान था और न ही प्रजा के हित की चिंता। लेकिन राजा के मंत्रीमंडल में एक बहुत ही चतुर और बुद्धिमान मंत्री थे, जिनका नाम विश्वामित्र था। वह अपनी समझदारी और दयालु स्वभाव से जनता में काफी प्रसिद्ध थे।
एक दिन राज्य के हर व्यक्ति की जानकारी रखने के लिए राजा ने एक फरमान जारी किया। इस अजीब फरमान के अनुसार, हर नागरिक को अपने सिर पर एक घंटी बाँधकर चलना था ताकि राजा को पता चल सके कि कोई भी व्यक्ति उसकी अनुमति के बिना राज्य में आया जा रहा है। इस फरमान से नागरिकों में असंतोष फैल गया और सब राजा की मूर्खता पर हंसी उड़ाने लगे।
समस्या तब और बढ़ी जब डाकुओं ने इसे अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किया। वे घंटी की आवाज़ का पीछा करते और अकेले व्यक्तियों को लूट लेते। जल्द ही राज्य में आतंक और भय का वातावरण बन गया।
मंत्री विश्वामित्र ने जब यह देखा तो वह बहुत चिंतित हुए। उन्होंने राजा के पास जाकर उन्हे इस फरमान के नकारात्मक पहलुओं के बारे में समझाने का निश्चय किया। लेकिन राजा ने कहा, “मैंने यह फरमान अपने विवेक से निकाला है, अगर तुम्हें इसमें कोई बुराई दिखाई देती है, तो तुम कोई हल निकालो।”
मंत्री विश्वामित्र ने सोचा और एक योजना बनाई। उन्होंने एक नगरवासी को बुलाया और उसे एक बड़ी झील के पास एक विशाल पेड़ पर घंटी बाँधने का आदेश दिया। वह नगरवासी जैसा उसने कहा वैसा किया। अगले दिन, जब हवा ने उस घंटी को बजाया, तो उसकी आवाज़ पूरे नगर में गूंज उठी। नागरिकों ने यह सोचकर चैन की साँस ली कि उन्हें अब घंटी बांधकर नहीं चलना पड़ेगा। जब शहर में चोरी और डकैती की घटनाएं बंद हो गईं, तो राजा ने मंत्री विश्वामित्र की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की।
इस तरह विश्वामित्र ने न केवल एक समस्या का समाधान निकाला बल्कि जनता को एक महत्वपूर्ण शिक्षा भी दी कि ‘सच्चा नेता वही होता है जो प्रजा की भलाई सोचता है और संकट के समय में सही मार्गदर्शन करता है।’
राज्य में स्थिति सामान्य हो गई थी और जनता एक बार फिर सुख और शांति से जीने लगी थी। विश्वामित्र की बुद्धिमत्ता का लोहा मानते हुए जनता उनके प्रति आदर और सम्मान की भावना रखने लगी। राजा गोपीचंद ने भी यह समझ लिया कि अकेले शक्ति होना ही पर्याप्त नहीं है, सफल और लोकप्रिय राजा वही होता है, जो अपनी प्रजा के दुःख-दर्द समझ सके और उनके समाधान के लिए कारगर कदम उठा सके।
समय बीतता गया और राज्य फलता-फूलता रहा। एक दिन, राजा गोपीचंद ने विश्वामित्र से कहा, “हे मंत्री, मैंने सीखा है कि सत्ता का मूल्य उसके प्रयोग में निहित होता है, न कि उसके दमन में। अब मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे राज्य को एक समृद्ध और जीवंत स्थान बनाने में मेरी सहायता करो।”
विश्वामित्र ने राजा के इस परिवर्तन को सराहते हुए कुछ अच्छी नीतियों का सुझाव दिया। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि को प्रोत्साहित किया जाए। राजा ने विश्वामित्र के सुझावों को खुले दिल से स्वीकार किया और जल्द ही राज्य में प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क कर दी गई, नए अस्पताल खोले गए और किसानों को खेती के लिए नए औजार और बीज वितरित किए गए।
प्रजा ने अपने जीवन में आये इस सुधार को देखा और वे राजा का शुक्रिया अदा करने लगे। धीरे-धीरे राजा गोपीचंद ना सिर्फ प्रजा के प्रिय हो गए बल्कि आसपास के राज्यों में भी उनके गुण गाए जाने लगे। राजा ने प्रजा के बीच समय बिताना शुरू किया, उनकी समस्याएं सुनी और प्रत्येक समाधान में भागीदारी भी की। विश्वामित्र के मार्गदर्शन में राजा ने जन-कल्याण के और भी कई काम किए और राज्य को समृद्धि की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।