प्राचीन भारत के एक गाँव में बसंत और उसकी पत्नी गौरी रहते थे। बसंत एक सरल हृदय का किसान था जिसके पास खेती की छोटी-सी जमीन थी। उस जमीन पर वह अपनी दिन-रात की मेहनत से अनाज उगाया करता था, परंतु हर बार, किसी न किसी विपत्ति के कारण उसकी फसल नष्ट हो जाती थी।
एक दिन, जब वह नदी के किनारे विचारमग्न बैठा हुआ था, तभी एक संत उसके पास आया और उसकी परेशानियों को समझा। उस संत ने बसंत को कुछ विशेष बीज दिए और कहा, “इन्हें अपने खेत में बो दो, परंतु याद रहे कि इनकी फसल से तुम्हें जो भी उपज मिले, उसका एक अंश दूसरों की मदद के लिए अवश्य देना।”
बसंत ने उन बीजों को बड़े प्रेम से बोया और उम्मीद से उनकी देखभाल की। कुछ ही समय में उन बीजों से अद्भुत फसलें उग आईं। फसलों में अद्वितीय मिठास और स्वाद था और पूरा गाँव उसकी चर्चा करने लगा।
बसंत ने संत की बात याद रखी और अपनी उपज का हिस्सा गरीबों और जरूरतमंदों में बाँटने लगा। उसके इस काम से न केवल उसकी फसलें और भी बढ़ने लगीं बल्कि उसका गाँव भी समृद्ध होने लगा। बसंत ने सीखा कि प्रकृति उसे जो देती है, उसका एक भाग वापस प्रकृति को देने में ही असली समृद्धि छुपी होती है।
इस प्रकार, बसंत की कहानी ‘लोक धारा’ में बहने लगी और कहा जाने लगा कि जो भी दान की भावना से देता है, वही प्रकृति से अनंत गुना प्राप्त करता है। और यहीं से बसंत का जीवन एक नई लोक कथा में बदल गया।