भूमिका:
गंगा किनारे के एक पुरातन नगर धरापुरी में, विद्वान ब्राह्मण परिवार ‘मिश्रा’ का आवास था। इस परिवार के मुखिया पंडित जी शहर के सबसे सम्मानित ज्ञानी पुरुष थे। उनके पास एक प्रचीन पुस्तकालय था, जिसमें कई अनूठी और मूल्यवान पुस्तकें संग्रहित थीं। इन्हीं में से एक पुस्तक ‘जीवन का रहस्य’ (The Mystery of Life) थी, जो परिवार के खजाने की तरह सबसे अधिक मानी जाती थी। यह किताब पीढ़ियों से उनके परिवार में चली आ रही थी, लेकिन इसका आखिरी पन्ना गुम था।
कहानी का विवरण:
पंडित जी के परिवार में, उनके दो संतान थे – विद्वान पुत्र गोपाल और मनमौजी पुत्री सुधा। गोपाल हमेशा अपने पिता के साथ रहते हुए पुस्तकों की गहराइयों में छिपे ज्ञान की खोज में डूबा रहता था, जबकि सुधा को नदी किनारे चिड़ियों के साथ खेलना, गीत गाना, और प्रकृति के सान्निध्य में समय बिताना पसंद था।
एक दिन, पंडित जी बीमार पड़ गए। उनके अंतिम शब्दों में उन्होंने कहा, “मेरे जीवन की सबसे बड़ी अधूरी इच्छा यह कि, मैं ‘जीवन का रहस्य’ पुस्तक का आखिरी पन्ना ढूंढ नहीं पाया।”
उनके देहांत के बाद, गोपाल ने इस अधूरी ख्वाहिश को पूरा करने का संकल्प लिया। उसने देश-विदेश के पुस्तकालयों की यात्रा शुरू की, विद्वानों से भेंट की, और उच्च-अध्ययन में समय बिताया। सुधा, अपने भाई की यह दशा देख, अपने पिता के दिए मोतीयों के हार को बेच देती है और आखिरी पन्ने की खोज में उसकी मदद करती है।
वर्षों बीत गए, लेकिन आखिरी पन्ना न मिला। गोपाल उदास और निराशा महसूस करने लगा। सुधा उसे ढाढ़स बंधाती रही, लेकिन खुद को दोषी महसूस करने लगी कि शायद उसकी इच्छा के कारण ही गोपाल का सारा जीवन इस खोज में बीत गया।
एक दिन सुधा, अपने पिता के शांत कक्ष में सफाई करते समय, उस पुस्तक ‘जीवन का रहस्य’ को धूल से साफ करती है। तभी एक पुराना कागज़ उसकी गोद में गिरता है। वह पुरजा निकलता है ‘जीवन का रहस्य’ का आखिरी पन्ना।
सुधा दौड़ती हुई गोपाल के पास जाती है और उसे वह पन्ना दिखाती है। वह पन्ना पढ़ते ही गोपाल की आँखों से आँसू बहने लगते हैं, क्योंकि उसमें लिखा हुआ था, “जीवन का असली रहस्य ज्ञान या धन में नहीं है, बल्कि अपनों के प्रेम और साथी के सहयोग में है। जो सुख प्रकृति की छोटी-छोटी चीजों में है, वही सच्चा धन है।”
नैतिक शिक्षा:
जीवन की सबसे बड़ी समृद्धि सांसारिक ज्ञान या भौतिक धन नहीं, बल्कि प्रेम, संबंधों और प्रकृति की सरलता में निहित है।